मातृ दिवस पर दिवंगत माँ को समर्पित
आज बबुआ का मन बड़ा उदास है।बबुआ को "माँ"आज बहुत याद आ रही है। माँ ही वह रिश्ता है जो हमारे सभी दुःख-दर्द,पास आती वेदनाओं को अपने कोरे में समेट,छू-मंतर कर दिया करती है।
आज भी बबुआ को याद है,उसका अपनी गोद में बिठा कर बबुआ जैसे छेरियाये बच्चे को दूध-भात खिलाते हुए गाना और मुँह में घुटुक करवा कर ही दम लेना--
ए चंदा मामा,
आरे आवS,बारे आवS,नदिया किनारे आवS---/
सोना के कटोरीया में दूध-भात ले ले आवSSSSS
बबुआ के मुहवाँ में "घुटुक"
---और इस घुटुक के साथ ही बबुआ के मुहवाँ में घुटुक हो जाता---बबुआ खिलखिला उठते,सारा छेरिआना पल भर में फुर्रर्रर्र जाता और माँ को जैसे सारा संसार मिल जाता।
छेरियाए बबुआ की खिलखिलाहट से ममत्व का तृप्त हो जाना और माँ के मुख पर आए तृप्त भाव से बबुआ का तृप्त हो जाना--अहा!क्या अनूठा आनंद था जो अब कहीं नहीं दिखता।
अपने बाल्यकाल में बबुआ "रूस" भी जाया करते थे।उन्हें अपना "रूसना" अब भी याद आता है।बबुआ के रूसने पर कैसे माँ बबुआ से लाड़ लगातीं,कैसे फुदगुद्दी चिरैंया का गीत गाकर भरी दोपहरी में बबुआ को अपने कोरे में चाँप कर सुलातीं--कुछ भी नहीं भूले हैं बबुआ--आज भी इस तनाव भरे माहौल में फुदगुद्दी चिरैंया का गीत बबुआ के मन को कुछ देर को शाँत कर जाता है--माँ के ममत्व का एहसास करा जाता है--अब बबुआ छटपटा उठते हैं--माँ के कोरा और फुदगुद्दी के गीत के लिए--
आउ रे फुदगुद्दी चिरैंया,
पपरा पकाउ।
तोरै पपरवे आग लागो,
बाबू के सुताउ।
---और फुदगुद्दी चिरैंया माँ के ममत्व की भाषा समझ जाती।मुँडेर पर आ खूब मन से बबुआ की ओर अपनी चहचहाहट फेंकती--बड़ी भली लगती थी वो चहचहाहट बबुआ को जो नींद ले आती और मीठी सी निन्नी को आँखों में फट्ट से "घुटुक" करवा जाती---बबुआ का "आउ रे निनिया निनर बन से" हो जाता--बबुआ माँ के कोरा के साथ गहरी नींद के कोरा में समा जाते।
न अब माँ का कोरा है,न छंद सिद्धांतों से रहित फुदगुद्दी चिंरैया का गीत और न ही फुदगुद्दी (गौरया)।
बबुआ बड़े हो गए हैं,समझदार हो गए हैं लेकिन बबुआ के भाग में न तो वह ममत्व भरा "घुटुक" है जिसे बबुआ तुरंत पचा कर दूसरे "घुटुक" के लिए तैयार हो जाते थे और न ही "आउ रे निंनिया निनर बन से" वाली नींद,जिसे सुन बबुआ फट्ट से गहरी नींद के कोरा में समा जाते थे।
बबुआ बेचैन हैं।न तो भूख लगती है,न ही नींद।अब बबुआ को किसी मूर्धन्य कवि के गीत में भी वह माधुर्य, वह रस नहीं मिलता जो माँ के ठेठ देहाती गीतों में बबुआ पा जाते थे।
माँ नहीं है,अतः बबुआ का बबुआपन मर गया है। बबुआ बड़े और समझदार हो गए हैं लेकिन समझदार भर हो जाने से चैन की नींद तो नहीं आती न। चैन की नींद के लिए बस माँ का ममत्व चाहिए जो बबुआ के पास नहीं है।
घनश्याम सहाय
डुमराँव, बक्सर, बिहार