कहाँ छिपे रखवाले हैं
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जीवन की गति आगे बढ़ती
साँस उखड़ती रहती है
प्रलय- सृजन के मध्य प्रेम की
धारा बहती रहती है।
कुछ गैरों से भी मिल जाता
कुछ अपनों से खोता है
मोह जाल में फँसकर मानव
जगते- जगते सोता है।
जल तरंग-से भाव उमड़ते
आँखें सब कह देती हैं
खुशी और गम के आँसू से
पलकें रोग भिगोती हैं।
किसको कहाँ फ़र्क पड़ता है
सब मन के मतवाले हैं
खोज रहा दिन-रात दीप ले
छिपे कहाँ रखवाले हैं।
भूपेश प्रताप सिंह